किस वास्ते साहिल पे खड़े हो शश्दर
हाथों में लिए तीरा-दिली के पत्थर
दावा है अगर दीदा-वरी का तुम को
इम्काँ के समुंदर से निकालो पत्थर
Ahmad Faraz
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ख़ुद-साख़्ता अफ़्साने सुनाते रहिए
मेरा ज़ौक़-ए-सज्दा-रेज़ी रास जिन को आ गया
उस मंज़िल-ए-हयात में अब गामज़न है दिल
सूरज पे जो थूकोगे तो क्या पाओगे
जब तजरबा की धूप में एहसास आया
हर सुब्ह के चेहरे को निखारा किस ने
जुनून-ए-शौक़-ए-मोहब्बत की आगही देना
गुलज़ार से क्या दश्त-ओ-दमन से गुज़रे
ज़ख़्म दिल का ख़ूँ-चकाँ ऐसा न था
गुम-कर्दा-ए-मंज़िल हुई आवाज़-ए-दरा
क्यूँ लग़्ज़िश-ए-पा मेरी मलामत का हदफ़ है