जब तजरबा की धूप में एहसास आया
अल्फ़ाज़ ने पैराहन-ए-शेअरी बख़्शा
आँखों में चमक उठ्ठे हज़ारों दीपक
मफ़्हूम का चेहरा भी नज़र में उभरा
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दश्त-दर-दश्त फिरा करता हूँ प्यासा हूँ मैं
किस वास्ते साहिल पे खड़े हो शश्दर
सूरज पे जो थूकोगे तो क्या पाओगे
हैं ख़्वाब भी और ख़्वाब की ताबीरें भी
उस मंज़िल-ए-हयात में अब गामज़न है दिल
मेरा ज़ौक़-ए-सज्दा-रेज़ी रास जिन को आ गया
ज़ख़्म दिल का ख़ूँ-चकाँ ऐसा न था
गुम रहोगे कब तक अपनी ज़ात ही में
एहसास में बे-ताबीे-ए-जाँ रख दी है
गुलज़ार से क्या दश्त-ओ-दमन से गुज़रे
ख़ुद-साख़्ता अफ़्साने सुनाते रहिए
गुम-कर्दा-ए-मंज़िल हुई आवाज़-ए-दरा