गुलज़ार से क्या दश्त-ओ-दमन से गुज़रे
तलवार से क्या दार-ओ-रसन से गुज़रे
फूलों की ललक वो थी कि 'शिबली' हम लोग
हर मार्का-ए-रंज-ओ-मेहन से गुज़रे
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मेरा ज़ौक़-ए-सज्दा-रेज़ी रास जिन को आ गया
जब तजरबा की धूप में एहसास आया
ये क्या कि फ़क़त अपनी ही तस्वीर बनाओ
ख़ुद-साख़्ता अफ़्साने सुनाते रहिए
उस मंज़िल-ए-हयात में अब गामज़न है दिल
जुनून-ए-शौक़-ए-मोहब्बत की आगही देना
सूरज पे जो थूकोगे तो क्या पाओगे
गुम-कर्दा-ए-मंज़िल हुई आवाज़-ए-दरा
दश्त-दर-दश्त फिरा करता हूँ प्यासा हूँ मैं
किस वास्ते साहिल पे खड़े हो शश्दर
क्यूँ लग़्ज़िश-ए-पा मेरी मलामत का हदफ़ है
वो मसाफ़-ए-जीस्त में हर मोड़ पर तन्हा रहा