यूँ निभाता हूँ मैं रिश्ते 'आलोक'
बे-गुनाही की सज़ा हो जैसे
Mir Taqi Mir
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सुन रहा हूँ कि वो आएँगे हँसाने मुझ को
यहाँ हो रहीं हैं वहाँ हो रहीं हैं
वाइ'ज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
जो भी सूखे गुल किताबों में मिले अच्छे लगे
मिरी क़ुर्बतों की ख़ातिर यूँही बे-क़रार होता
धावा बोलेगा बहुत जल्द ख़िज़ाँ का लश्कर
एक उम्र से तुझे मैं बे-उज़्र पी रहा हूँ
सब्ज़ है पैरहन चाँद का आज फिर
मुझ को जन्नत के नज़ारे भी नहीं जचते हैं
हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
खुला है ज़ीस्त का इक ख़ुशनुमा वरक़ फिर से
रक़ाबत क्यूँ है तुम को आसमाँ से