वाइ'ज़ सफ़र तो मेरा भी था रूह की तरफ़
पर क्या करूँ कि राह में ये जिस्म आ पड़ा
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भटका करूँगा कब तक राहों में तेरी आ कर
हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
एक उम्र से तुझे मैं बे-उज़्र पी रहा हूँ
भरे जो ज़ख़्म तो दाग़ों से क्यूँ उलझें?
सब्ज़ है पैरहन चाँद का आज फिर
नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा
अंजुमन में जो मिरी इतनी ज़िया है साहब
सरापा तिरा क्या क़यामत नहीं है?
दिलकशी थी उन्सियत थी या मोहब्बत या जुनून
प्यार का दोनों पे आख़िर जुर्म साबित हो गया
बाज़ ख़त पुर-असर भी होते हैं