सुन रहा हूँ कि वो आएँगे हँसाने मुझ को
आँसुओ तुम भी ज़रा रंग जमाए रखना
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बाज़ ख़त पुर-असर भी होते हैं
हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
मिरे लिए हैं मुसीबत ये आइना-ख़ाने
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
खुला है ज़ीस्त का इक ख़ुशनुमा वरक़ फिर से
नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा
प्यार का दोनों पे आख़िर जुर्म साबित हो गया
यूँ निभाता हूँ मैं रिश्ते 'आलोक'
जो भी सूखे गुल किताबों में मिले अच्छे लगे
मुझ को जन्नत के नज़ारे भी नहीं जचते हैं
भरे जो ज़ख़्म तो दाग़ों से क्यूँ उलझें?
दिलकशी थी उन्सियत थी या मोहब्बत या जुनून