नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा
मैं मिल जाऊँगा मिट्टी में क़लम ज़िंदा रहेगा
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इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
मिरी क़ुर्बतों की ख़ातिर यूँही बे-क़रार होता
मिरे लिए हैं मुसीबत ये आइना-ख़ाने
यहाँ हो रहीं हैं वहाँ हो रहीं हैं
भटका करूँगा कब तक राहों में तेरी आ कर
जो भी सूखे गुल किताबों में मिले अच्छे लगे
हद-ए-इमकान से आगे मैं जाना चाहता हूँ पर
रक़ाबत क्यूँ है तुम को आसमाँ से
खुला है ज़ीस्त का इक ख़ुशनुमा वरक़ फिर से
यूँ निभाता हूँ मैं रिश्ते 'आलोक'
प्यार का दोनों पे आख़िर जुर्म साबित हो गया