मुझ को जन्नत के नज़ारे भी नहीं जचते हैं
शहर-ए-जानाँ ही तसव्वुर में बसा है साहब
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हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
खुला है ज़ीस्त का इक ख़ुशनुमा वरक़ फिर से
यूँ निभाता हूँ मैं रिश्ते 'आलोक'
अंजुमन में जो मिरी इतनी ज़िया है साहब
सब्ज़ है पैरहन चाँद का आज फिर
नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा
प्यार का दोनों पे आख़िर जुर्म साबित हो गया
धावा बोलेगा बहुत जल्द ख़िज़ाँ का लश्कर
दिलकशी थी उन्सियत थी या मोहब्बत या जुनून
यहाँ हो रहीं हैं वहाँ हो रहीं हैं