धावा बोलेगा बहुत जल्द ख़िज़ाँ का लश्कर
शाख़ को नेज़ा करूँ फूल को तलवार करूँ
Mir Taqi Mir
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सुन रहा हूँ कि वो आएँगे हँसाने मुझ को
दिलकशी थी उन्सियत थी या मोहब्बत या जुनून
रक़ाबत क्यूँ है तुम को आसमाँ से
नई नस्लों के हाथों में भी ताबिंदा रहेगा
मुझ को जन्नत के नज़ारे भी नहीं जचते हैं
हुस्न की दिलकशी पे नाज़ न कर
एक उम्र से तुझे मैं बे-उज़्र पी रहा हूँ
बाज़ ख़त पुर-असर भी होते हैं
गुलों की गर इनायत हो गई तो
इक ज़रा सी चाह में जिस रोज़ बिक जाता हूँ मैं
यहाँ हो रहीं हैं वहाँ हो रहीं हैं
सरापा तिरा क्या क़यामत नहीं है?