मिरी क़ुर्बतों की ख़ातिर यूँही बे-क़रार होता

मिरी क़ुर्बतों की ख़ातिर यूँही बे-क़रार होता

जो मिरी तरह उसे भी कहीं मुझ से प्यार होता

न वो इस तरह बदलते न निगाह फेर लेते

जो न बेबसी का मेरी उन्हें ए'तिबार होता

वो कुछ ऐसे ढलता मुझ में कि ग़म उस के मेरे होते

वो जो सोगवार होता तो मैं अश्क-बार होता

मुझे चैन लेने देती कहाँ इंक़िलाबी फ़ितरत

न मुसाहिबों में होता न मैं शह का यार होता

मैं उसी के नाम करता ये हयात मौत सब कुछ

मुझे ज़िंदगी पे 'आलोक' अगर इख़्तियार होता

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