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जज़्ब कुछ तितलियों के पर में है - आलोक मिश्रा कविता - Darsaal

जज़्ब कुछ तितलियों के पर में है

जज़्ब कुछ तितलियों के पर में है

कैसी ख़ुशबू सी उस कलर में है

आने वाला है कोई सहरा क्या

गर्द ही गर्द रहगुज़र में है

जब से देखा है ख़्वाब में उस को

दिल मुसलसल किसी सफ़र में है

छू के गाड़ी बग़ल से क्या गुज़री

बे-ख़याली सी इक नज़र में है

मैं भी बिखरा हुआ हूँ अपनों में

वो भी तन्हा सा अपने घर में है

रात तुम याद भी नहीं आए

फिर उदासी सी क्यूँ सहर में है

उस की ख़ामोशी गूँजती होगी

शोर बरपा जो दिल-खंडर में है

हाथ सर पर वो शाख़ें रखती हैं

कोई अपना सा उस शजर में है

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