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ये कौन तुम से अब कहे - अलमास शबी कविता - Darsaal

ये कौन तुम से अब कहे

ये कौन तुम से अब कहे

ये रोज़ रोज़ दर्द के जो सिलसिले हैं कम करो

ज़रा तो तुम करम करो

जो रोज़ रोज़ आओगे जो रोज़ रोज़ जाओगे

कहाँ तलक रुलाओगे कहाँ तलक सताओगे

न मुझ पे अब सितम करो जो हो सके करम करो

मिला गया है रास्ता ये मुश्किलों से जो हमें

मिलें तो इस तरह मिलें कि फूल बन के हम खिलें

ये मैं जो मैं हूँ न रहूँ

ये तुम जो तुम हो न रहो

कुछ इस तरह बहम करो

चलो ये धागे ज़ीस्त के उँगलियों पे डाल के

खेलते हैं हम ज़रा भूलते हैं सब ज़रा

कहीं अगर उलझ गए तो प्यार से सुलझ गए

मोहब्बतों के कुछ दिए जो मिल के हम जलाएँगे

कभी जले कभी बुझे कभी बुझे कभी जले

चराग़-ए-ज़िंदगी अगर

तो मिल कि हम बचाएँगे

बिछड़ गए तो फूल खिल ना पाएँगे

ये कौन तुम से अब कहे

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