एक पहाड़ और गिलहरी
कोई पहाड़ ये कहता था इक गिलहरी से
तुझे हो शर्म तो पानी में जा के डूब मरे
ज़रा सी चीज़ है इस पर ग़ुरूर! क्या कहना!
ये अक़्ल और ये समझ ये शुऊर! क्या कहना!
ख़ुदा की शान है ना-चीज़! चीज़ बन बैठें
जो बे-शुऊर हों यूँ बा-तमीज़ बन बैठें!
तिरी बिसात है क्या मेरी शान के आगे
ज़मीं है पस्त मिरी आन-बान के आगे
जो बात मुझ में है तुझ को वो है नसीब कहाँ
भला पहाड़ कहाँ जानवर ग़रीब कहाँ!
कहा ये सुन के गिलहरी ने मुँह सँभाल ज़रा
ये कच्ची बातें हैं दिल से इन्हें निकाल ज़रा!
जो मैं बड़ी नहीं तेरी तरह तो क्या पर्वा!
नहीं है तू भी तो आख़िर मिरी तरह छोटा
हर एक चीज़ से पैदा ख़ुदा की क़ुदरत है
कोई बड़ा कोई छोटा ये उस की हिकमत है
बड़ा जहान में तुझ को बना दिया उस ने
मुझे दरख़्त पे चढ़ना सिखा दिया उस ने
क़दम उठाने की ताक़त नहीं ज़रा तुझ में
निरी बड़ाई है! ख़ूबी है और क्या तुझ में
जो तू बड़ा है तो मुझ सा हुनर दिखा मुझ को
ये छालिया ही ज़रा तोड़ कर दिखा मुझ को
नहीं है चीज़ निकम्मी कोई ज़माने में
कोई बुरा नहीं क़ुदरत के कार-ख़ाने में
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