ये है ख़ुलासा-ए-इल्म-ए-क़लंदरी कि हयात
ख़दंग-ए-जस्ता है लेकिन कमाँ से दूर नहीं
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तू ने ये क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया
ख़ुदा तुझे किसी तूफ़ाँ से आश्ना कर दे
हाँ दिखा दे ऐ तसव्वुर फिर वो सुब्ह ओ शाम तू
कभी तन्हाई-ए-कोह-ओ-दमन इश्क़
बुतों से तुझ को उमीदें ख़ुदा से नौमीदी
न हो तुग़्यान-ए-मुश्ताक़ी तो मैं रहता नहीं बाक़ी
ये काएनात अभी ना-तमाम है शायद
इल्म में भी सुरूर है लेकिन
ख़िरद के पास ख़बर के सिवा कुछ और नहीं
नया शिवाला
एक आरज़ू
अंदाज़-ए-बयाँ गरचे बहुत शोख़ नहीं है