यही ज़माना-ए-हाज़िर की काएनात है क्या
दिमाग़ रौशन ओ दिल तीरा ओ निगह बेबाक
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मुझे आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-नीम-शब का फिर पयाम आया
हैं उक़्दा-कुशा ये ख़ार-ए-सहरा
ख़ुदी की ख़ल्वतों में गुम रहा मैं
अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं
जावेद के नाम
न पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की
कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है
तेरा इमाम बे-हुज़ूर तेरी नमाज़ बे-सुरूर
वालिदा मरहूमा की याद में
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ
ये हूरयान-ए-फ़रंगी दिल ओ नज़र का हिजाब
हकीम ओ आरिफ़ ओ सूफ़ी तमाम मस्त-ए-ज़ुहूर