तू है मुहीत-ए-बे-कराँ मैं हूँ ज़रा सी आबजू
या मुझे हम-कनार कर या मुझे बे-कनार कर
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तिरा अंदेशा अफ़्लाकी नहीं है
करेंगे अहल-ए-नज़र ताज़ा बस्तियाँ आबाद
हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेर-ए-दरिया तैरने वाले
मानिंद-ए-सहर सेहन-ए-गुलिस्ताँ में क़दम रख
माँ का ख़्वाब
कोई देखे तो मेरी नय-नवाज़ी
गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख
जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो
फ़रिश्ते आदम को जन्नत से रुख़्सत करते हैं
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन
राम
बाग़-ए-बहिश्त से मुझे हुक्म-ए-सफ़र दिया था क्यूँ