सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे
कि आलम-ए-बशरीयत की ज़द में है गर्दूं
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यक़ीं मोहकम अमल पैहम मोहब्बत फ़ातेह-ए-आलम
दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है
ख़िरद वाक़िफ़ नहीं है नेक-ओ-बद से
एक पहाड़ और गिलहरी
न मोमिन है न मोमिन की अमीरी
ख़ुदी हो इल्म से मोहकम तो ग़ैरत-ए-जिब्रील
जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी
मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी
एजाज़ है किसी का या गर्दिश-ए-ज़माना
नशा पिला के गिराना तो सब को आता है
नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त
ये हूरयान-ए-फ़रंगी दिल ओ नज़र का हिजाब