रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल
आप भी शर्मसार हो मुझ को भी शर्मसार कर
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करेंगे अहल-ए-नज़र ताज़ा बस्तियाँ आबाद
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
बुतों से तुझ को उमीदें ख़ुदा से नौमीदी
ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
मस्जिद-ए-क़ुर्तुबा
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो
मुझे आह-ओ-फ़ुग़ान-ए-नीम-शब का फिर पयाम आया
वालिदा मरहूमा की याद में
मरक़द का शबिस्ताँ भी उसे रास न आया
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़
निगह उलझी हुई रंग-ओ-बू में