नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर
तू शाहीं है बसेरा कर पहाड़ों की चटानों में
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कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को
मुसलमाँ के लहू में है सलीक़ा दिल-नवाज़ी का
तिरा जौहर है नूरी पाक है तू
गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख
नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से
तिरी निगाह फ़रोमाया हाथ है कोताह
कल अपने मुरीदों से कहा पीर-ए-मुग़ाँ ने
यूँ तो सय्यद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़्ग़ान भी हो
निकल जा अक़्ल से आगे कि ये नूर
जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी
फ़ितरत मिरी मानिंद-ए-नसीम-ए-सहरी है
खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश