मिरे जुनूँ ने ज़माने को ख़ूब पहचाना
वो पैरहन मुझे बख़्शा कि पारा पारा नहीं
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हुआ न ज़ोर से उस के कोई गरेबाँ चाक
खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश
अगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली
जिब्रईल ओ इबलीस
दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है
न पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की
मेरी नवा-ए-शौक़ से शोर हरीम-ए-ज़ात में
नानक
हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक
फ़ितरत ने न बख़्शा मुझे अंदेशा-ए-चालाक
मोती समझ के शान-ए-करीमी ने चुन लिए
मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी