किसे ख़बर कि सफ़ीने डुबो चुकी कितने
फ़क़ीह ओ सूफ़ी ओ शाइर की ना-ख़ुश-अंदेशी
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ख़ुदी की ख़ल्वतों में गुम रहा मैं
यूँ हाथ नहीं आता वो गौहर-ए-यक-दाना
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
हकीम ओ आरिफ़ ओ सूफ़ी तमाम मस्त-ए-ज़ुहूर
ख़ुदी के ज़ोर से दुनिया पे छा जा
ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है
क्या इश्क़ एक ज़िंदगी-ए-मुस्तआ'र का
कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है
उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में
मकानी हूँ कि आज़ाद-ए-मकाँ हूँ
समा सकता नहीं पहना-ए-फ़ितरत में मिरा सौदा
अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं