कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है
बात कहने की नहीं तू भी तो हरजाई है
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कल अपने मुरीदों से कहा पीर-ए-मुग़ाँ ने
हाँ दिखा दे ऐ तसव्वुर फिर वो सुब्ह ओ शाम तू
इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में
कभी आवारा ओ बे-ख़ानुमाँ इश्क़
ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़
यही ज़माना-ए-हाज़िर की काएनात है क्या
फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर
यूँ हाथ नहीं आता वो गौहर-ए-यक-दाना
तरीक़-ए-अहल-ए-दुनिया है गिला-शिकवा ज़माने का
इसी ख़ता से इताब-ए-मुलूक है मुझ पर
पूछ उस से कि मक़्बूल है फ़ितरत की गवाही
अता अस्लाफ़ का जज़्ब-ए-दरूँ कर