जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते
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ख़ुदाई एहतिमाम-ए-ख़ुश्क-ओ-तर है
अंदाज़-ए-बयाँ गरचे बहुत शोख़ नहीं है
इस राज़ को इक मर्द-ए-फ़रंगी ने किया फ़ाश
सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे
हुआ न ज़ोर से उस के कोई गरेबाँ चाक
उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में
इश्क़ भी हो हिजाब में हुस्न भी हो हिजाब में
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो
ज़ोहद और रिंदी
मक़ाम-ए-शौक़ तिरे क़ुदसियों के बस का नहीं
दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब