इसी ख़ता से इताब-ए-मुलूक है मुझ पर
कि जानता हूँ मआल-ए-सिकंदरी क्या है
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मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना
फ़ितरत ने न बख़्शा मुझे अंदेशा-ए-चालाक
उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में
रहा न हल्क़ा-ए-सूफ़ी में सोज़-ए-मुश्ताक़ी
तिरी दुनिया जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही
निगह उलझी हुई रंग-ओ-बू में
अमीन-ए-राज़ है मर्दान-ए-हूर की दरवेशी
शुऊर ओ होश ओ ख़िरद का मोआमला है अजीब
तू ने ये क्या ग़ज़ब किया मुझ को भी फ़ाश कर दिया
तराना-ए-मिल्ली
कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है
रम्ज़-ओ-ईमा इस ज़माने के लिए मौज़ूँ नहीं