हुई न आम जहाँ में कभी हुकूमत-ए-इश्क़
सबब ये है कि मोहब्बत ज़माना-साज़ नहीं
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हर इक ज़र्रे में है शायद मकीं दिल
फ़क़्र के हैं मोजज़ात ताज ओ सरीर ओ सिपाह
बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़
जवाब-ए-शिकवा
फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर
फ़क़त निगाह से होता है फ़ैसला दिल का
ख़िरद ने मुझ को अता की नज़र हकीमाना
ये काएनात अभी ना-तमाम है शायद
तिरा अंदेशा अफ़्लाकी नहीं है
हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़
ज़माना अक़्ल को समझा हुआ है मिशअल-ए-राह
वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ