हरम-ए-पाक भी अल्लाह भी क़ुरआन भी एक
कुछ बड़ी बात थी होते जो मुसलमान भी एक
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कभी आवारा ओ बे-ख़ानुमाँ इश्क़
कोई देखे तो मेरी नय-नवाज़ी
गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अंदाज़-ए-बयाँ गरचे बहुत शोख़ नहीं है
कभी तन्हाई-ए-कोह-ओ-दमन इश्क़
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन
ताज़ा फिर दानिश-ए-हाज़िर ने किया सेहर-ए-क़ादिम
मार्च 1907
बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़
माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
अमल से ज़िंदगी बनती है जन्नत भी जहन्नम भी