हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही
क्या चाँद तारे क्या मुर्ग़ ओ माही
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क्या इश्क़ एक ज़िंदगी-ए-मुस्तआ'र का
कमाल-ए-तर्क नहीं आब-ओ-गिल से महजूरी
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं
कभी तन्हाई-ए-कोह-ओ-दमन इश्क़
तिरी निगाह फ़रोमाया हाथ है कोताह
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो
हज़रात-ए-इंसाँ
फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन
ख़ुदी की शोख़ी ओ तुंदी में किब्र-ओ-नाज़ नहीं
कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को
ज़लाम-ए-बहर में खो कर सँभल जा