है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़
अहल-ए-नज़र समझते हैं उस को इमाम-ए-हिंद
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मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी
था जहाँ मदरसा-ए-शीरी-ओ-शाहंशाही
कोई देखे तो मेरी नय-नवाज़ी
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
किसे ख़बर कि सफ़ीने डुबो चुकी कितने
कमाल-ए-तर्क नहीं आब-ओ-गिल से महजूरी
ये दैर-ए-कुहन क्या है अम्बार-ए-ख़स-ओ-ख़ाशाक
ये कौन ग़ज़ल-ख़्वाँ है पुर-सोज़ ओ नशात-अंगेज़
पूछ उस से कि मक़्बूल है फ़ितरत की गवाही
वही मेरी कम-नसीबी वही तेरी बे-नियाज़ी
ख़ुदी वो बहर है जिस का कोई किनारा नहीं