निगह उलझी हुई रंग-ओ-बू में
ख़िरद खोई गई है चार-सू में
न छोड़ ऐ दिल फ़ुग़ान-ए-सुब्ह-गाही
अमाँ शायद मिले अल्लाह-हू में
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जवाब-ए-शिकवा
महीने वस्ल के घड़ियों की सूरत उड़ते जाते हैं
रह-ओ-रस्म-ए-हरम ना-मोहरिमानग
ने मोहरा बाक़ी ने मोहरा-बाज़ी
जमाल-ए-इश्क़-ओ-मस्ती नय-नवाज़ी
है राम के वजूद पे हिन्दोस्ताँ को नाज़
हुए मदफ़ून-ए-दरिया ज़ेर-ए-दरिया तैरने वाले
जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
अता अस्लाफ़ का जज़्ब-ए-दरूँ कर
कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को
मिलेगा मंज़िल-ए-मक़्सूद का उसी को सुराग़
नहीं तेरा नशेमन क़स्र-ए-सुल्तानी के गुम्बद पर