गुलज़ार-ए-हस्त-ओ-बूद न बेगाना-वार देख
है देखने की चीज़ इसे बार बार देख
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अक़्ल गो आस्ताँ से दूर नहीं
ज़लाम-ए-बहर में खो कर सँभल जा
तिरे इश्क़ की इंतिहा चाहता हूँ
उसे सुब्ह-ए-अज़ल इंकार की जुरअत हुई क्यूँकर
गेसू-ए-ताबदार को और भी ताबदार कर
अज़ाब-ए-दानिश-ए-हाज़िर से बा-ख़बर हूँ मैं
ज़ोहद और रिंदी
तमीज़-ए-ख़ार-ओ-गुल से आश्कारा
मकानी हूँ कि आज़ाद-ए-मकाँ हूँ
तिरी निगाह फ़रोमाया हाथ है कोताह
कभी ऐ हक़ीक़त-ए-मुंतज़र नज़र आ लिबास-ए-मजाज़ में
आँख जो कुछ देखती है लब पे आ सकता नहीं