न मोमिन है न मोमिन की अमीरी
रहा सूफ़ी गई रौशन-ज़मीरी
ख़ुदा से फिर वही क़ल्ब-ओ-नज़र माँग
नहीं मुमकिन अमीरी बे-फ़क़ीरी
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आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक-ओ-बाद सिर्र-ए-अयाँ है तू कि मैं
पूछ उस से कि मक़्बूल है फ़ितरत की गवाही
इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर
तिरी दुनिया जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही
उक़ाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में
इस राज़ को इक मर्द-ए-फ़रंगी ने किया फ़ाश
मोहब्बत का जुनूँ बाक़ी नहीं है
अमीन-ए-राज़ है मर्दान-ए-हूर की दरवेशी
ख़िर्द-मंदों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं