मोहब्बत का जुनूँ बाक़ी नहीं है
मुसलामानों में ख़ूँ बाक़ी नहीं है
सफ़ें कज, दिल परेशाँ, सज्दा बे-ज़ौक़
कि जज़्ब-ए-अन्दरूँ बाक़ी नहीं है
Allama Iqbal
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फ़ितरत को ख़िरद के रू-ब-रू कर
वालिदा मरहूमा की याद में
अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी
ये नुक्ता मैं ने सीखा बुल-हसन से
कभी तन्हाई-ए-कोह-ओ-दमन इश्क़
निकल जा अक़्ल से आगे कि ये नूर
हम को तो मयस्सर नहीं मिट्टी का दिया भी
कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को
रगों में वो लहू बाक़ी नहीं है
अगर कज-रौ हैं अंजुम आसमाँ तेरा है या मेरा
बातिल से दबने वाले ऐ आसमाँ नहीं हम
खो न जा इस सहर ओ शाम में ऐ साहिब-ए-होश