दुनिया की महफ़िलों से उकता गया हूँ या रब
क्या लुत्फ़ अंजुमन का जब दिल ही बुझ गया हो
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सर-गुज़िश्त-ए-आदम
एक आरज़ू
ग़ुलामी में न काम आती हैं शमशीरें न तदबीरें
गोरिस्तान-ए-शाही
तू अभी रहगुज़र में है क़ैद-ए-मक़ाम से गुज़र
ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़
उमीद-ए-हूर ने सब कुछ सिखा रक्खा है वाइज़ को
अंदाज़-ए-बयाँ गरचे बहुत शोख़ नहीं है
ऐ ताइर-ए-लाहूती उस रिज़्क़ से मौत अच्छी
सवार-ए-नाक़ा-ओ-महमिल नहीं मैं
मुरीद-ए-सादा तो रो रो के हो गया ताइब
वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ