दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है
फिर इस में अजब क्या कि तू बेबाक नहीं है
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गला तो घोंट दिया अहल-ए-मदरसा ने तिरा
हर इक मक़ाम से आगे गुज़र गया मह-ए-नौ
अगर हंगामा-हा-ए-शौक़ से है ला-मकाँ ख़ाली
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो
इल्म में भी सुरूर है लेकिन
हादसा वो जो अभी पर्दा-ए-अफ़्लाक में है
निकल जा अक़्ल से आगे कि ये नूर
कभी हम से कभी ग़ैरों से शनासाई है
अमीन-ए-राज़ है मर्दान-ए-हूर की दरवेशी
ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़
हुई न आम जहाँ में कभी हुकूमत-ए-इश्क़