ख़ुदी बुलंद थी उस ख़ूँ-गिरफ़्ता चीनी की
कहा ग़रीब ने जल्लाद से दम-ए-ताज़ीर
ठहर ठहर कि बहुत दिल-कुशा है ये मंज़र
ज़रा मैं देख तो लूँ ताबनाकी-ए-शमशीर
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हुआ न ज़ोर से उस के कोई गरेबाँ चाक
कहा 'इक़बाल' ने शैख़-ए-हरम से
मक़ाम-ए-शौक़ तिरे क़ुदसियों के बस का नहीं
इश्क़ से पैदा नवा-ए-ज़िंदगी में ज़ेर-ओ-बम
माना कि तेरी दीद के क़ाबिल नहीं हूँ मैं
नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से
जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिस में
जमाल-ए-इश्क़-ओ-मस्ती नय-नवाज़ी
सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे
दिल सोज़ से ख़ाली है निगह पाक नहीं है
इल्तिजा-ए-मुसाफ़िर
सौदा-गरी नहीं ये इबादत ख़ुदा की है