कल अपने मुरीदों से कहा पीर-ए-मुग़ाँ ने
क़ीमत में ये मअनी है दुर-ए-नाब से दह-चंद
ज़हराब है उस क़ौम के हक़ में मय-ए-अफ़रंग
जिस क़ौम के बच्चे नहीं ख़ुद्दार ओ हुनर-मंद
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अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी
इसी ख़ता से इताब-ए-मुलूक है मुझ पर
ख़िरद से राह-रौ रौशन-बसर है
न तू ज़मीं के लिए है न आसमाँ के लिए
हम को तो मयस्सर नहीं मिट्टी का दिया भी
तिरी दुनिया जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही
वजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग
मोहब्बत का जुनूँ बाक़ी नहीं है
कुशादा दस्त-ए-करम जब वो बे-नियाज़ करे
अजब नहीं कि ख़ुदा तक तिरी रसाई हो
ज़ोहद और रिंदी
ज़मिस्तानी हवा में गरचे थी शमशीर की तेज़ी