जवानों को मिरी आह-ए-सहर दे
फिर इन शाहीं बच्चों को बाल-ओ-पर दे
ख़ुदाया आरज़ू मेरी यही है
मिरा नूर-ए-बसीरत आम कर दे
Allama Iqbal
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कभी छोड़ी हुई मंज़िल भी याद आती है राही को
जब इश्क़ सिखाता है आदाब-ए-ख़ुद-आगाही
मरक़द का शबिस्ताँ भी उसे रास न आया
हया नहीं है ज़माने की आँख में बाक़ी
सौ सौ उमीदें बंधती है इक इक निगाह पर
हज़ार ख़ौफ़ हो लेकिन ज़बाँ हो दिल की रफ़ीक़
ये पयाम दे गई है मुझे बाद-ए-सुब्ह-गाही
हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही
मोहब्बत का जुनूँ बाक़ी नहीं है
हज़रात-ए-इंसाँ
ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़
इसी ख़ता से इताब-ए-मुलूक है मुझ पर