'इक़बाल' ने कल अहल-ए-ख़याबाँ को सुनाया
ये शेर-ए-नशात-आवर ओ पुर-सोज़ ओ तरब-नाक
मैं सूरत-ए-गुल दस्त-ए-सबा का नहीं मुहताज
करता है मिरा जोश-ए-जुनूँ मेरी क़बा चाक
Jaun Eliya
Wasi Shah
Gulzar
Parveen Shakir
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Rahat Indori
Faiz Ahmad Faiz
Allama Iqbal
Javed Akhtar
Habib Jalib
Mohsin Naqvi
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(2770) Peoples Rate This
कोई देखे तो मेरी नय-नवाज़ी
आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक-ओ-बाद सिर्र-ए-अयाँ है तू कि मैं
ख़ुदी हो इल्म से मोहकम तो ग़ैरत-ए-जिब्रील
तिरी दुनिया जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही
इश्क़ तिरी इंतिहा इश्क़ मिरी इंतिहा
मिरी नवा से हुए ज़िंदा आरिफ़ ओ आमी
अपनी जौलाँ-गाह ज़ेर-ए-आसमाँ समझा था मैं
गुज़र जा अक़्ल से आगे कि ये नूर
बे-ख़तर कूद पड़ा आतिश-ए-नमरूद में इश्क़
जलाल-ए-पादशाही हो कि जमहूरी तमाशा हो
परेशाँ कारोबार-ए-आश्नाई
नहीं इस खुली फ़ज़ा में कोई गोशा-ए-फ़राग़त