फ़िरदौस में रूमी से ये कहता था 'सनाई'
मशरिक़ में अभी तक है वही कासा वही आश
'हल्लाज' की लेकिन ये रिवायत है कि आख़िर
इक मर्द-ए-क़लंदर ने किया राज़-ए-ख़ुदी फ़ाश
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अरब के सोज़ में साज़-ए-अजम है
पूछ उस से कि मक़्बूल है फ़ितरत की गवाही
है याद मुझे नुक्ता-ए-सलमान-ए-ख़ुश-आहंग
तिरे आज़ाद बंदों की न ये दुनिया न वो दुनिया
नहीं है ना-उमीद 'इक़बाल' अपनी किश्त-ए-वीराँ से
अनोखी वज़्अ' है सारे ज़माने से निराले हैं
दिगर-गूँ है जहाँ तारों की गर्दिश तेज़ है साक़ी
फ़िरदौस में 'रूमी' से ये कहता था 'सनाई'
हर शय मुसाफ़िर हर चीज़ राही
आज़ादी-ए-अफ़्कार से है उन की तबाही
मिरे जुनूँ ने ज़माने को ख़ूब पहचाना
तिरी दुनिया जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही