चमन में रख़्त-ए-गुल शबनम से तर है
समन है सब्ज़ा है बाद-ए-सहर है
मगर हंगामा हो सकता नहीं गर्म
यहाँ का लाला बे-सोज़-ए-जिगर है
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रोज़-ए-हिसाब जब मिरा पेश हो दफ़्तर-ए-अमल
ढूँडता फिरता हूँ मैं 'इक़बाल' अपने आप को
सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
हर इक मक़ाम से आगे गुज़र गया मह-ए-नौ
न पूछो मुझ से लज़्ज़त ख़ानमाँ-बर्बाद रहने की
इस राज़ को इक मर्द-ए-फ़रंगी ने किया फ़ाश
ख़ुदी की जल्वतों में मुस्तफ़ाई
ख़िरद ने मुझ को अता की नज़र हकीमाना
न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दोस्ताँ वालो
मैं जो सर-ब-सज्दा हुआ कभी तो ज़मीं से आने लगी सदा
रह-ओ-रस्म-ए-हरम ना-मोहरिमानग
ये कौन ग़ज़ल-ख़्वाँ है पुर-सोज़ ओ नशात-अंगेज़