Warning: session_start(): open(/var/cpanel/php/sessions/ea-php56/sess_afdee98ae3aa5d9cccd9a9652936937e, O_RDWR) failed: Disk quota exceeded (122) in /home/dars/public_html/helper/cn.php on line 1

Warning: session_start(): Failed to read session data: files (path: /var/cpanel/php/sessions/ea-php56) in /home/dars/public_html/helper/cn.php on line 1
हिमाला - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

हिमाला

ऐ हिमाला ऐ फ़सील-ए-किश्वर-ए-हिन्दुस्तान

चूमता है तेरी पेशानी को झुक कर आसमाँ

तुझ में कुछ पैदा नहीं देरीना रोज़ी के निशाँ

तू जवाँ है गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर के दरमियाँ

एक जल्वा था कलीम-ए-तूर-ए-सीना के लिए

तू तजल्ली है सरापा चश्म-ए-बीना के लिए

इम्तिहान-ए-दीदा-ए-ज़ाहिर में कोहिस्ताँ है तू

पासबाँ अपना है तू दीवार-ए-हिन्दुस्ताँ है तू

मतला-ए-अव्वल फ़लक जिस का हो वो दीवाँ है तू

सू-ए-ख़ल्वत-गाह-ए-दिल दामन-कश-ए-इंसाँ है तू

बर्फ़ ने बाँधी है दस्तार-ए-फ़ज़ीलत तेरे सर

ख़ंदा-ज़न है जो कुलाह-ए-मेहर-ए-आलम-ताब पर

तेरी उम्र-ए-रफ़्ता की इक आन है अहद-ए-कुहन

वादियों में हैं तिरी काली घटाएँ ख़ेमा-ज़न

चोटियाँ तेरी सुरय्या से हैं सरगर्म-ए-सुख़न

तू ज़मीं पर और पहना-ए-फ़लक तेरा वतन

चश्मा-ए-दामन तिरा आईना-ए-सय्याल है

दामन-ए-मौज-ए-हवा जिस के लिए रूमाल है

अब्र के हाथों में रहवार-ए-हवा के वास्ते

ताज़ियाना दे दिया बर्क़-ए-सर-ए-कोहसार ने

ऐ हिमाला कोई बाज़ी-गाह है तू भी जिसे

दस्त-ए-क़ुदरत ने बनाया है अनासिर के लिए

हाए क्या फ़र्त-ए-तरब में झूमता जाता है अब्र

फ़ील-ए-बे-ज़ंजीर की सूरत उड़ा जाता है अब्र

जुम्बिश-ए-मौज-ए-नसीम-ए-सुब्ह गहवारा बनी

झूमती है नश्शा-ए-हस्ती में हर गुल की कली

यूँ ज़बान-ए-बर्ग से गोया है उस की ख़ामुशी

दस्त-ए-गुल-चीं की झटक मैं ने नहीं देखी कभी

कह रही है मेरी ख़ामोशी ही अफ़्साना मिरा

कुंज-ए-ख़ल्वत ख़ाना-ए-क़ुदरत है काशाना मिरा

आती है नद्दी फ़राज़-ए-कोह से गाती हुई

कौसर ओ तसनीम की मौजों को शरमाती हुई

आईना सा शाहिद-ए-क़ुदरत को दिखलाती हुई

संग-ए-रह से गाह बचती गाह टकराती हुई

छेड़ती जा इस इराक़-ए-दिल-नशीं के साज़ को

ऐ मुसाफ़िर दिल समझता है तिरी आवाज़ को

लैला-ए-शब खोलती है आ के जब ज़ुल्फ़-ए-रसा

दामन-ए-दिल खींचती है आबशारों की सदा

वो ख़मोशी शाम की जिस पर तकल्लुम हो फ़िदा

वो दरख़्तों पर तफ़क्कुर का समाँ छाया हुआ

काँपता फिरता है क्या रंग-ए-शफ़क़ कोहसार पर

ख़ुश-नुमा लगता है ये ग़ाज़ा तिरे रुख़्सार पर

ऐ हिमाला दास्ताँ उस वक़्त की कोई सुना

मस्कन-ए-आबा-ए-इंसाँ जब बना दामन तिरा

कुछ बता उस सीधी-साधी ज़िंदगी का माजरा

दाग़ जिस पर ग़ाज़ा-ए-रंग-ए-तकल्लुफ़ का न था

हाँ दिखा दे ऐ तसव्वुर फिर वो सुब्ह ओ शाम तू

दौड़ पीछे की तरफ़ ऐ गर्दिश-ए-अय्याम तू

(3283) Peoples Rate This

Your Thoughts and Comments

Himala In Hindi By Famous Poet Allama Iqbal. Himala is written by Allama Iqbal. Complete Poem Himala in Hindi by Allama Iqbal. Download free Himala Poem for Youth in PDF. Himala is a Poem on Inspiration for young students. Share Himala with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.