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फ़रमान-ए-ख़ुदा - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

फ़रमान-ए-ख़ुदा

उठ्ठो मिरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो

काख़-ए-उमरा के दर ओ दीवार हिला दो

गर्माओ ग़ुलामों का लहू सोज़-ए-यक़ीं से

कुन्जिश्क-ए-फ़रोमाया को शाहीं से लड़ा दो

सुल्तानी-ए-जम्हूर का आता है ज़माना

जो नक़्श-ए-कुहन तुम को नज़र आए मिटा दो

जिस खेत से दहक़ाँ को मयस्सर नहीं रोज़ी

उस खेत के हर ख़ोशा-ए-गंदुम को जला दो

क्यूँ ख़ालिक़ ओ मख़्लूक़ में हाइल रहें पर्दे

पीरान-ए-कलीसा को कलीसा से उठा दो

हक़ रा ब-सजूदे सनमाँ रा ब-तवाफ़े

बेहतर है चराग़-ए-हरम-ओ-दैर बुझा दो

मैं ना-ख़ुश ओ बे-ज़ार हूँ मरमर की सिलों से

मेरे लिए मिट्टी का हरम और बना दो

तहज़ीब-ए-नवी कारगह-ए-शीशागराँ है

आदाब-ए-जुनूँ शाइर-ए-मशरिक़ को सिखा दो

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