औरत
वजूद-ए-ज़न से है तस्वीर-ए-काएनात में रंग
उसी के साज़ से है ज़िंदगी का सोज़-ए-दरूँ
शरफ़ में बढ़ के सुरय्या से मुश्त-ए-ख़ाक उस की
कि हर शरफ़ है इसी दर्ज का दुर-ए-मकनूँ
मुकालमात-ए-फ़लातूँ न लिख सकी लेकिन
उसी के शोले से टूटा शरार-ए-अफ़लातूँ
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