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ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़ - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़

ज़मीर-ए-लाला मय-ए-लाल से हुआ लबरेज़

इशारा पाते ही सूफ़ी ने तोड़ दी परहेज़

बिछाई है जो कहीं इश्क़ ने बिसात अपनी

किया है उस ने फ़क़ीरों को वारिस-ए-परवेज़

पुराने हैं ये सितारे फ़लक भी फ़र्सूदा

जहाँ वो चाहिए मुझ को कि हो अभी नौ-ख़ेज़

किसे ख़बर है कि हंगामा-ए-नशूर है क्या

तिरी निगाह की गर्दिश है मेरी रुस्ता-ख़ेज़

न छीन लज़्ज़त-ए-आह-ए-सहर-गही मुझ से

न कर निगह से तग़ाफ़ुल को इल्तिफ़ात आमेज़

दिल-ए-ग़मीं के मुआफ़िक़ नहीं है मौसम-ए-गुल

सदा-ए-मुर्ग़-ए-चमन है बहुत नशात अंगेज़

हदीस-ए-बे-ख़बराँ है तू बा ज़माना ब-साज़

ज़माना बा तो न साज़द तू बा ज़माना सातेज़

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