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ये पयाम दे गई है मुझे बाद-ए-सुब्ह-गाही - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

ये पयाम दे गई है मुझे बाद-ए-सुब्ह-गाही

ये पयाम दे गई है मुझे बाद-ए-सुब्ह-गाही

कि ख़ुदी के आरिफ़ों का है मक़ाम पादशाही

तिरी ज़िंदगी इसी से तिरी आबरू इसी से

जो रही ख़ुदी तो शाही न रही तो रू-सियाही

न दिया निशान-ए-मंज़िल मुझे ऐ हकीम तू ने

मुझे क्या गिला हो तुझ से तू न रह-नशीं न राही

मिरे हल्क़ा-ए-सुख़न में अभी ज़ेर-ए-तर्बियत हैं

वो गदा कि जानते हैं रह-ओ-रस्म-ए-कज-कुलाही

ये मुआमले हैं नाज़ुक जो तिरी रज़ा हो तू कर

कि मुझे तो ख़ुश न आया ये तरिक़-ए-ख़ानक़ाही

तू हुमा का है शिकारी अभी इब्तिदा है तेरी

नहीं मस्लहत से ख़ाली ये जहान-ए-मुर्ग़-ओ-माही

तू अरब हो या अजम हो तिरा ला इलाह इल्ला

लुग़त-ए-ग़रीब जब तक तिरा दिल न दे गवाही

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