ये कौन ग़ज़ल-ख़्वाँ है पुर-सोज़ ओ नशात-अंगेज़
ये कौन ग़ज़ल-ख़्वाँ है पुर-सोज़ ओ नशात-अंगेज़
अंदेशा-ए-दाना को करता है जुनूँ-आमेज़
गो फ़क़्र भी रखता है अंदाज़-ए-मुलूकाना
ना-पुख़्ता है परवेज़ी बे-सल्तनत-ए-परवेज़
अब हुजरा-ए-सूफ़ी में वो फ़क़्र नहीं बाक़ी
ख़ून-ए-दिल-ए-शेराँ हो जिस फ़क़्र की दस्तावेज़
ऐ हल्क़ा-ए-दरवेशाँ वो मर्द-ए-ख़ुदा कैसा
हो जिस के गरेबाँ में हंगामा-ए-रुस्ता-ख़ेज़
जो ज़िक्र की गरमी से शोले की तरह रौशन
जो फ़िक्र की सुरअत में बिजली से ज़ियादा तेज़
करती है मुलूकियात आसार-ए-जुनूँ पैदा
अल्लाह के निश्तर हैं तैमूर हो या चंगेज़
यूँ दाद-ए-सुख़न मुझ को देते हैं इराक़ ओ पारस
ये काफ़िर-ए-हिन्दी है बे-तेग़-ओ-सिनाँ ख़ूँ-रेज़
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