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वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ

वो हर्फ़-ए-राज़ कि मुझ को सिखा गया है जुनूँ

ख़ुदा मुझे नफ़स-ए-जिबरईल दे तो कहूँ

सितारा क्या मिरी तक़दीर की ख़बर देगा

वो ख़ुद फ़राख़ी-ए-अफ़्लाक में है ख़्वार ओ ज़ुबूँ

हयात क्या है ख़याल ओ नज़र की मजज़ूबी

ख़ुदी की मौत है अँदेशा-हा-ए-गूना-गूँ

अजब मज़ा है मुझे लज़्ज़त-ए-ख़ुदी दे कर

वो चाहते हैं कि मैं अपने आप में न रहूँ

ज़मीर-ए-पाक ओ निगाह-ए-बुलंद ओ मस्ती-ए-शौक़

न माल-ओ-दौलत-ए-क़ारूँ न फ़िक्र-ए-अफ़लातूँ

सबक़ मिला है ये मेराज-ए-मुस्तफ़ा से मुझे

कि आलम-ए-बशरीयत की ज़द में है गर्दूं

ये काएनात अभी ना-तमाम है शायद

कि आ रही है दमादम सदा-ए-कुन-फ़यकूँ

इलाज आतिश-ए-'रूमी' के सोज़ में है तिरा

तिरी ख़िरद पे है ग़ालिब फ़िरंगियों का फ़ुसूँ

उसी के फ़ैज़ से मेरी निगाह है रौशन

उसी के फ़ैज़ से मेरे सुबू में है जेहूँ

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