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तिरी निगाह फ़रोमाया हाथ है कोताह - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

तिरी निगाह फ़रोमाया हाथ है कोताह

तिरी निगाह फ़रोमाया हाथ है कोताह

तिरा गुनह कि नख़ील-ए-बुलंद का है गुनाह

गला तो घोंट दिया अहल-ए-मदरसा ने तिरा

कहाँ से आए सदा ला इलाह इल-लल्लाह

ख़ुदी में गुम है ख़ुदाई तलाश कर ग़ाफ़िल

यही है तेरे लिए अब सलाह-ए-कार की राह

हदीस-ए-दिल किसी दरवेश-ए-बे-गलीम से पूछ

ख़ुदा करे तुझे तेरे मक़ाम से आगाह

बरहना सर है तो अज़्म-ए-बुलंद पैदा कर

यहाँ फ़क़त सर-ए-शाहीं के वास्ते है कुलाह

न है सितारे की गर्दिश न बाज़ी-ए-अफ़्लाक

ख़ुदी की मौत है तेरा ज़वाल-ए-नेमत-ओ-जाह

उठा मैं मदरसा ओ ख़ानक़ाह से ग़मनाक

न ज़िंदगी न मोहब्बत न मअरिफ़त न निगाह

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