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रहा न हल्क़ा-ए-सूफ़ी में सोज़-ए-मुश्ताक़ी - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

रहा न हल्क़ा-ए-सूफ़ी में सोज़-ए-मुश्ताक़ी

रहा न हल्क़ा-ए-सूफ़ी में सोज़-ए-मुश्ताक़ी

फ़साना-हा-ए-करामात रह गए बाक़ी

ख़राब कोशक-ए-सुल्तान ओ ख़ानक़ाह-ए-फ़क़ीर

फ़ुग़ाँ कि तख़्त ओ मुसल्ला कमाल-ए-रज़्ज़ाक़ी

करेगी दावर-ए-महशर को शर्मसार इक रोज़

किताब-ए-सूफ़ी-ओ-मुल्ला की सादा-औराक़ी

न चीनी ओ अरबी वो न रूमी ओ शामी

समा सका न दो आलम में मर्द-ए-आफ़ाक़ी

मय-ए-शबाना की मस्ती तो हो चुकी लेकिन

खटक रहा है दिलों में करिश्मा-ए-साक़ी

चमन में तल्ख़-नवाई मिरी गवारा कर

कि ज़हर भी कभी करता है कार-ए-तिर्याक़ी

अज़ीज़-तर है मता-ए-अमीर-ओ-सुल्ताँ से

वो शेर जिस में हो बिजली का सोज़ ओ बाराक़ैफ़ी

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