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फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन - अल्लामा इक़बाल कविता - Darsaal

फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन

फिर चराग़-ए-लाला से रौशन हुए कोह ओ दमन

मुझ को फिर नग़्मों पे उकसाने लगा मुर्ग़-ए-चमन

फूल हैं सहरा में या परियाँ क़तार अंदर क़तार

ऊदे ऊदे नीले नीले पीले पीले पैरहन

बर्ग-ए-गुल पर रख गई शबनम का मोती बाद-ए-सुब्ह

और चमकाती है उस मोती को सूरज की किरन

हुस्न-ए-बे-परवा को अपनी बे-नक़ाबी के लिए

हों अगर शहरों से बन प्यारे तो शहर अच्छे कि बन

अपने मन में डूब कर पा जा सुराग़-ए-ज़ि़ंदगी

तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन

मन की दुनिया मन की दुनिया सोज़ ओ मस्ती जज़्ब ओ शौक़

तन की दुनिया तन की दुनिया सूद ओ सौदा मक्र ओ फ़न

मन की दौलत हाथ आती है तो फिर जाती नहीं

तन की दौलत छाँव है आता है धन जाता है धन

मन की दुनिया में न पाया मैं ने अफ़रंगी का राज

मन की दुनिया में न देखे मैं ने शैख़ ओ बरहमन

पानी पानी कर गई मुजको क़लंदर की ये बात

तू झुका जब ग़ैर के आगे न मन तेरा न तन

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